सच ! आकाश बहुत ऊंचा था

सच ! आकाश बहुत ऊंचा था
गिरा जो परसों, दबे-मरे सब
कई सपने तो पैरों में थे
कूड़ाघर पर गिरे थे तारे
बदबू और सडन में लथपथ
सूरज का कुछ पता नहीं है
गुमशुदगी के पर्चे चिपके
देखे थे कल चौराहे पर
कहते हैं अब नहीं मिलेगा
छोड़के सबकुछ चला गया है
दूर पहाड़ों पर रहता है
बारिश में भीगा करता है
सारी जलन मिटा लेगा अब
लौट के भी फिर क्या करना है
आकाश बिना वो कहाँ रहेगा
कहाँ से बाटेगा उजियारा
सबके घर में बल्ब लगे हैं
अब उसका कुछ काम नहीं है
अब सबकी छत आसमान हैं
बल्ब बने हैं तारा मंडल
सरकारें सूरज टाँगेंगी
सुना है ठेके उठा रही हैं.