पोर्ट्रेट

ज़िन्दगी मेरी कोई कविता अधूरी सी
ख्वाहिशें जैसे कि हों बिन सीढियों की छत
और झील भर आंसूं में दो उम्मीद की बतखें

वक़्त की बारिश ने सारे रंग बहा डाले
बदशकल सा शख्स आईने में दिखता है
तुम जो लौटोगे मुझे पहचान लोगे ना

धूल सी यादें जमा हैं फर्श पर मेरी
पैर छपते हैं मैं इनसे जब गुजरता हूँ
कल रात फिर कदमों से एक कविता लिखी मैंने.

हॉरोस्कोप

बादलों से भरी एक खूबसूरत शाम में
छत पर अकेला टहलता हुआ
मैं बुनता हूँ ख़्वाबों की एक सतरंगी रस्सी
और बाँध लेता हूँ अपने पैरों से
बाद में उसी रस्सी का दूसरा सिरा
जा फसेगा घड़ी की सुईयों में !

गर्मियों की एक वीरान दोपहर में
अपने कमरे में औंधे मुंह लेटा हुआ
मैं पढता हूँ एक पुरानी किताब
जिसके एक पन्ने के मुड़े हुए कोने से निकलकर
एक किरदार घुस जाता है मेरे भीतर
मुझे जीवन भर इसके डायलाग दोहराने होंगे !

स्कूल से कोचिंग के रास्ते में
साइकिल के पैडल मारता हुआ
मैं लिखता हूँ उसे एक खयाली ख़त
फिर उसे चबा जाता हूँ सबसे छुपाने के लिए
मैं जीवन भर इसके टुकड़े उगलकर
बनाता रहूंगा नयी नयी कवितायें !

नोस्टाल्जिया

वो जाती हुई सी धूप का एक बड़ा टुकड़ा
हम छोड़ आये थे जो उस दिन शाम में
दिल चाहता है, लौट जाऊं, ढूंढ लाऊँ

जो रखे थे किसी छूटी हुई बुनियाद पर
चाय के दो कप और सुस्ताये से लम्हे
फिर से वहीं बैठूं, अधूरा दिन बिताऊँ

वही रस्ते जो हमने पैर से खींचे थे खुद ही
वही रिश्ते जो बस पहली दफा सुलगाये थे
मैं फिर से कश भरूँ ऐसा, कि रस्ते भूल जाऊँ.

गुमशुदा

न तुम जो सोचते हो, न मैं जो सोचता हूँ
मैं कौन हूँ, कहाँ हूँ, हर रोज़ खोजता हूँ

पूछो न मुझसे मेरा रस्ता, सफ़र ओ मंजिल
बस पाँव कांपते हैं, दिखता है दौड़ता हूँ

तस्वीर में भी धोखा, तक़रीर में भी झूठा
जानोगे मुझे कैसे, किरदार ओढ़ता हूँ

तस्वीर लेके अपनी दर दर भटक रहा हूँ
खुद में कहीं छिपा हूँ, दुनिया में ढूढता हूँ

उस दिन तेरी नज़र से देखा था जिसे मैंने
वो कौन हमशकल था, मैं नाम पूछता हूँ.

शतरंज का एक प्यादा

जब से जागा है वो, बहुत हैरान है
ये काला सफ़ेद बोर्ड उसे अब अच्छा नहीं लगता
न ही अपनी ये घिसी पिटी सी चाल
यकीनन अब वो आजिज़ आ चुका है इस खेल से
उसका ज़रा भी मन नहीं लगता यहाँ अब
उबासियाँ लेता है दिन भर
खाली बैठा आकाश में बादलों को उड़ता देखता है
और अभी दो चालों के बीच के खाली वक़्त में
वो सोच रहा है की कब वो पिटे
और बाहर निकले इस मनहूस बोर्ड से
फिर जब उसकी ओर किसी का ख्याल नहीं होगा
वो इस बोर्ड से इतना दूर चला जाएगा
कि उसे दूसरी बाजी के लिए नहीं खोजा जा सकेगा
फिर वो अपने लिए एक ऐसी दुनिया तलाशेगा
जहां कोई काले सफ़ेद खाने नहीं होंगे
और जहां वो अपने मन की चालें चल सकेगा.

पतंगें

पतंगें जो उड़ रही थी
ख्वाब की डोरी पे सध के
आसमां को जोडती थीं
दूर तारे तोड़ती थीं
दांव पेचों में कटी हैं
हाथ बस डोरें बची हैं
दो पतंगें दो सिरे थे
दोनों तरफ इंसान थे !

इक छोटा सा सपना हूँ मैं

इक छोटा सा सपना हूँ मैं
गलती से आया हूँ शायद
बिना बुलाये बिना पुकारे
रस्ता भूल गया हूँ जैसे
कभी अचानक जब टूटुंगा
उस पल तक ही मौजूं हूँ बस
फिर मेरा कोई नाम नहीं है.

ख्वाब

कल रात सोने में बड़ी मुश्किल रही
तुम ख्वाब जैसे आँख में चुभते रहे
सुबह उठकर जो आखें धोईं उनमें चाशनी थी

तुम्हारी हंसी भी खनकी किसी बीती घड़ी से
मैं साँस रोके डूबकर सुनने लगा
गनीमत थी अलार्म बज गया, मैं जग गया

तुम्हारी आँख के भीतर भी झांका था ठहरकर
मुझे बादल दिखे, सागर दिखा दुनिया दिखी
काश तुम देख पाते, किस कदर चौंका हुआ था

मेरी दुनिया अँधेरी सी तुम्हारे चाँद से सपने
कल की अंधेरी रात मैं जुगनू रहा
दोपहर तक मेरी आखों में चमक थी.

शिनाख्त

बस कुछ बरस बीते
कि जब ये ज़िन्दगी ऐसी न थी
हर बात पर यूं आह भरना
काश कहना यूं न था
ये बुझी आखें
हथेली का पसीना
सब नया है
ये बस खुद में छुपे रहना
गुज़रना याद के पन्नों से गुपचुप
और रोज़ करना गुज़रे सालों का हिसाब
ये आदतें ताज़ी नहीं
तो ज्यादा बासी भी नहीं हैं
जब से लौटा हूँ
मैं वक़्त के नाशाद टुकड़े से गुज़रकर
ना जाने क्या था क्या हो गया हूँ
मैं अपनी शक्ल में आवाज़ में अंदाज़ में
कुछ ढूंढता हूँ
कुछ तो मिले पहले सा, अपना सा
पहचाना हुआ सा
मैं घंटों झांकता हूँ शीशे में बड़ी हसरत लिए
मगर मैं हर दफा नाकाम रहता हूँ
न ही ये याद आता है
कि इसके पहले क्या था मैं
न सूरत याद है अपनी
न कोई पहचान बाकी है जेहन में
सभी कुछ धुल गया है
वक़्त के दरिया में बहके
एक आख़िरी तरकीब सूझी है मुझे अब
कैसा हो कि तुम घर आओ शिनाख्त करने मेरी
कि तुम ही ने देखा था आख़िरी बार मुझे
कि जब मैं 'मैं' था वही पहले सा
पहचाना हुआ सा
मैं कैसा था तुम्हे तो याद होगा न !

डेढ़ चम्मच ख्वाब

जो ऐसा हो कि बारिश में हमारी रूह भीगी हो
और चाय का प्याला मिले गर्मागरम

इक अदरक की डली यादों सी कड़वी हो
तिरछी नज़र जितनी कोई इलाईची हो
कुछ डेढ़ चम्मच ख्वाब मीठा रंग लायें

भीगी हुई सीमेंट वाली बेंच भी हो
धूप में बूढ़े हुए से लाल रंग की
झुर्रियां धुलकर की जैसे चमक जाएँ

रास्ते भीगे हुए जो खीचते हों
कदम जिन पर फिसलते हों रुक न पाएं
धानी धुले पत्तों से आखें चौधियाएं

पेड़ की डाली से कुछ बूँदें गिरें
प्याले में बड़ी सोंधी सी इक खुशबू घुले
बचने की कोशिश हो की प्याला छलक जाए.

शून्य

शब्द शून्य, शून्य दृष्टी
शून्य व्यक्ति, शून्य सृष्टि
शून्य की विमा हज़ार
शून्य में गति अपार
शोर शून्य, शून्य शांति
शून्य सत्य, शून्य भ्रान्ति
शून्य आदि, शून्य अंत
शून्य में छिपा अनंत
सब विचार मिलके शून्य
सब प्रकाश मिलके शून्य
शून्य, जबकि कुछ नहीं है
शून्य, जबकि सब यहीं है
ध्यान के क्षणों में शून्य
प्रेम के पलों में शून्य
शून्य, जिसकी हर विधा है
शून्य, जिसमे हर दिशा है
नींद शून्य स्वप्न शून्य
जन्म शून्य मृत्यु शून्य
मुझमें शून्य तुझमे शून्य
सर्व शकित्मान शून्य

...तो कैसा हो?

उलटा लटका तारों से मैं दुनिया देखूं तो कैसा हो
सपनों की रस्सी लटका कर झूला झूलूँ तो कैसा हो

बीते कल को आज में घोलूँ
पीकर मैं आकाश में डोलूँ
जूते गिर जाएँ जो मेरे, चल ना पाऊँ तो कैसा हो

अपना ही कार्टून बनाऊँ
जीभ निकालूँ उसे चिढ़ाऊं
हँसते हँसते गिर जाऊं फिर, उठ ना पाऊँ तो कैसा हो.....

कप में आंसूं भरके रखूँ
किस्से यादें चुनके रखूँ
सारे बीते गुज़रे लम्हे, वापस लाऊँ तो कैसा हो

क्या तुम मेरे गीत सुनोगे
ख़्वाबों का संगीत सुनोगे
आखों से छेड़ूँ मैं स्वर, तुम सुन ना पाओ तो कैसा हो.

काश कि..

काश कि मैं इक शायर होता
लिखता आंसू की सियाही से
दर्द भरी कुछ नज्में और मैं
कह देता हाले दिल अपना
सियाही सब खाली कर देता

काश कि मैं इक बादल होता
खूब गरजता खूब बरसता
बूँद बूँद कर खूब बिखरता
गली सड़क नदियों नालों में
जब तक ख़त्म नहीं होता खुद

काश कि मैं बस इक दिन होता
सूरज के संग उगता फिर मैं
धूप में जलता शाम में ढलता
ज़ल्दी से बूढा हो जाता
रात अंधेरी कब्र में सोता.

जन्मदिन पर

कैलेण्डर तुमने मेरी कहानी गिनती में कह दी है
बिना शब्दों के एकदम सिम्बोलिक तरीके से
सफ़र में माईल स्टोन बना दिए हैं
अलग अलग पार्ट, अलग अलग चैप्टर
जैसे पढ़ना आसान करने के लिए किसी ने
पैराग्राफ बाँट दिए हों किसी लम्बी चिट्ठी में
अब जब तुम्हारे एक और पन्ने को पलट कर आज
मैं दिसंबर वाले पन्ने के थोड़ा और नजदीक पहुच गया हूँ
लगता है जैसे इन पन्नों में पुरानापन आने लगा है
उसी पुरानी डिजाइन ने बोर कर दिया है
अब चमक गायब है पहले जैसी नयी प्रिंटिंग वाली
वो खुशबू भी नहीं आती जो जनवरी में आती थी कागज और सियाही की
धूल ज़्यादा महकती है अब तुमसे
एक टेक्स्चर सा आ गया है धूप सहते सहते
तुम्हारे मुड़े कोने वाले पन्नों पर मैं अपने माथे जैसी लकीरे देखता हूँ
जो हर पन्ने के पलटने के साथ चौड़ी होती जाती हैं
कभी कभी मैं तुम्हारे ऊपर छपी डिजिट्स भूलकर
इन्हीं चौड़ी लकीरों में खो जाता हूँ
और देखता हूँ कि कैसे ये लकीरें हाथ की लकीरों की तरह
तुम पर छपी ढेरों डिजिट्स से होकर गुजरती हैं
और बुन देती हैं उनके बीच एक रहस्यमयी मकडजाल
जिनके बीच फसा हुआ मैं आगे के पन्नों तक पूरा पूरा नहीं पहुच पाता
और इसीलिये पीछे पलटे हुए तुम्हारे पन्नों में
दफन होता रहता हूँ थोड़ा थोड़ा पन्ना दर पन्ना
और आज जब तुम्हारा एक और पन्ना पलट रहा हूँ
मैं हैरान हूँ कि पहले तुम्हारे पन्ने ख़त्म होंगे या मैं ?

अलविदा

जागा हुआ हूँ सदियों से जैसे,
मैं सो न जाऊं कहीं
हारा थका हूँ, पीछे खडा हूँ,
जो घर लौट जाऊं कहीं
कैसा हो इक रोज़ तुमसे कहे कोई,
कि मैं तो था ही नहीं
भ्रम था तुम्हारा, मन का सहारा मैं,
बस और कोई नहीं

कहानी गढ़ूंगा, मैं फिर से बुनूँगा,
ख़्वाबों की दुनिया नई
टाकुंगा तुमको सितारों के जैसे,
मैं चमकूंगा तुममें कहीं
मैं नगमें लिखूंगा सुबह से रौशन
उदासी भुलाके सभी
मगर क्या पता मेरी आवाज़ तुम तक
पहुचेगी भी या नहीं

साँसों की डोरी पे टिकते नहीं हैं
जिद्दी पतंग हैं ये ख्वाब
उड़ जाते हैं डोर मांझे छुड़ाके
कहीं दूर बादल के पार
ये सपने किसी के भी अपने नहीं हैं
हैं मिलते यहाँ बस उधार
अपनी भी आखों से तुम देख लेना
कभी मेरे जाने के बाद

पूरा कहाँ हूँ, मैं बिखरा हुआ हूँ
बीते पलों में तमाम
ठहरा हुआ हूँ वहीं उस घड़ी में
तुम्हें अपनी बाहों में थाम
जहां ज़िंदगी अपनी खुशियों भरी थी
था गम का न कोई निशान
वहीं उस घड़ी में मुझे ढूढ़ लेना
कभी आये जो मेरी याद.

मैं तुमसे प्यार इतना आजकल करने लगा हूँ

मैं तुझसे प्यार इतना आजकल करने लगा हूँ
मैं ज़िंदा हूँ, जीते जी मगर मरने लगा हूँ.

मैं जब तुझसे मिला था मेरा भी एक आशियाँ था
मगर कुछ रोज से तुझमें कहीं रहने लगा हूँ.

कि अब हर रात तेरे ख्वाब आखें चूमते हैं
लोग हैरान हैं मैं क्या नशा करने लगा हूँ.

मेरे किस्मत में तेरा नाम लिख दे, लिख सके तो
मैं काफ़िर हूँ मगर फिर भी दुआ कहने लगा हूँ.

दरिया है कि सागर है कि तू पागल नदी है
मैं तेरे साथ सब कुछ छोडकर बहने लगा हूँ.

मैं जो तुझसे मिलूँ इस बार तो खूब चूमने देना
कि तेरे इश्क़ में मैं प्यास से मरने लगा हूँ.

तेरी आखों की मैं गहराई नापूंगा ये सोचा है
इसी मकसद से इनमें कई दफा गिरने लगा हूँ.

नहाता हूँ, न खाता हूँ, न सोता हूँ ज़रूरत भर
तुम्हारी याद में खुद पर ज़ुलम करने लगा हूँ.

तुम्हारे जिस्म को अच्छी तरह महसूस कर लूँ
तुम्हारी रूह का हिस्सा सा मैं बनने लगा हूँ.

ज़रा सा पास आ जाओ कि दो से एक हो जाएँ
अकेला मैं भी तेरी ही तरह पड़ने लगा हूँ.


नाटक

झूठ में डूबी हुई दुनिया का नाटक देखिये
सुबह अखबारों में पढ़िए सौ फ़साने झूठ के
रात को टीवी पे सुनिए एक नयी झूठी बहस

आजादियाँ नारों में हैं, गानों में, अफसानों में हैं
पर असलियत में जुर्म है आज़ाद होना
क़ानून की हर दफा में एक सजा है इसके लिए

अपने भीतर झांकना आसाँ नहीं सबके लिए
एक अन्धेरा कुआं है ब्लैक होल जैसा
दिया जो रोशन था, कब का बुझ चुका है

आँख पर ब्लिंकर्स पहने एक पल ठहरे बिना
करोड़ों घोड़े बिना जॉकी के सरपट दौड़ते हैं
ज़िंदगी दौड़ बन गयी है और दुनिया रेस कोर्स

शाम-सुबह

है शाम सी सुबह तो क्या
उजाला कम ही अच्छा है
ये चुभता भी नहीं आखों में
और ख्वाब के गॉगल पहनने की ज़रुरत भी नहीं

जियो एक सांस में और ख़त्म हो
ये किस्सा है बड़ा बोझिल
क्यूं लंबा खीचना इतना
जो सुन ले बोर हो जाए, जिए जो, वो सज़ा भुगते

भरे हैं याद के गोदाम पहले ही
छांटने बीनने का भी वक़्त नहीं
कहाँ रखोगे जो लम्हे और लाये
गठरियाँ लादकर ये पीठ पर घूमोगे कब तक

होंठ थक गए मुस्कुराकर
आँख रोकर सूख गयी
इंसान हो या ड्रामे का किरदार कोई
इक उम्र है जज्बात की भी, बुढ़ाता जिस्म ही है क्या!

कविता की रात

उसे इतना कुछ कहना था कि
उस रात कविता लिखता ही चला गया
स्याही ख़त्म हुई तो आसुओं से लिखा
फिर रक्त का इस्तेमाल हुआ
कागज़ ख़त्म हुआ तो उसने खुद पर कवितायें लिख दीं
अपने यादों और सपनों को कविताओं से पाट दिया
हर दृश्य हर तस्वीर जो याद आयी उसे कविताओं में डुबो दिया
और लिखते लिखते जब वो खाली हो गया
उसने अपनी कुछ कवितायें बिछाईं
और बाकी की ओढ़कर सो गया
सुबह लोगों को फर्श पर कविताओं की तीन परतें मिली
पुलिस परेशान रही कि कविताओं का पोस्टमार्टम कैसे हो.

कबाड़खाना

जिन्दगी के कबाड़खाने में जमा होते रहते हैं
टूटे फूटे सपने, उधडी हुई उम्मीदें और यादों के मकड़जाल
जिन्हें साफ़ करने की न तो मुझे हिम्मत है और न वक़्त
अग्रीमेंट अभी लंबा है यहाँ पर मेरा
और कोई दूसरा ठिकाना भी नहीं रहने का
जैसे तैसे हर रात सरकाता हूँ ख़्वाबों का कबाड़
और थोड़ी जगह बन जाती है बमुश्किल सोने की
और सुबह होते ही कूड़े से भरी मेज़ पर जम जाता हूँ
उम्मीदों का फटा हुआ लूडो लेकर
एक खारी कॉफ़ी पीता हुआ मैं करता हूँ इंतज़ार
सुबह के शाम और शाम के रात होने का
मैंने कपड़े नहीं बदले महीनों से और नहाया भी नहीं
या शायद सालों से ठीक से याद नहीं
कैलेण्डर पर जमा हैं धूल की परतें
कुछ धुंधला सा दिखता है जो बहुत गौर से देखो
और इतना गौर करने की मेरे पास कुछ वज़ह भी नहीं
घड़ी भी बंद है घर की न जाने कब से
मैंने कई बार सेल बदले मशीन बदली खोला बांधा भी इसे
पर सुईयां हिलती ही नहीं, अड़ियल हैं, जमी बैठी हैं
जहां थम गयी थीं एक दिन अचानक यूं ही चलते चलते !