जंग-ए-उम्मीद

ये सियाही से नहा लथपथ हुई
बदबू भरी बदरंग रूहें
अभी ज़िंदा हैं थोड़ी सी
कहीं कुछ सांस तो अटकी सी है
कालिखों में घूमती हैं
ग्रहण के काले पलों में
रोशनी को ढूंढती हैं
बारिशों के दिन नहायेंगी
धुलेंगी चमक जायेंगी
अभी भी सोचती हैं
ख्वाब की उम्मीद से हैं
सूरज का रस्ता तक रही हैं
एक दूसरे का हाथ थामे हैं
आहिस्ता चल रही हैं
जमीं पर दलदल भी है
कुछ पैर धसते जा रहे हैं
तेज चलना है सुना है
भेड़िये भी आ रहे हैं
उम्मीद की ये जंग बस
सदियों से यूं ही चल रही है
हर रूह में इक रोशनी है
हर रूह खुद ही जल रही है
फिर भी कहीं खोया है सूरज
बादल भी कुछ सुनता नहीं है
कुछ तो करिश्मा है मगर
कि काफिला थमता नहीं है
आगे कहीं कुछ जीत सा
होगा मगर दिखता नहीं है
घटती हैं सासें हर कदम
पर हौसला घटता नहीं है.